सुन सको गर …

सुन सकें गर….अनमोल रिश्ते ….

हैं लिए.. मान और नेह की प्रबल संभावनाएं
फिर ह्रदय का अधिकार आ कर ..कंठ तक ..क्यूँ..
निरुपाय होकर रह गया ..निष्प्राण सा

वक़्त से संस्कारित…मर्यादित सीमायें…क्यूँ
जकड़े हुए हैं..सर से पाँव तक…
भाव बिसरा पड़ा बेचारा ..हाय …सा

कृशकाय सा नासूर..अब नहीं कुछ वर्जनाएं
खिसकते दिनों में हथेलियों पे हाथ धर
क्यूँ शुष्क आँखें ..समुन्दर का लगाये हाट सा

सुन सकें  गर हर पलों की ..मूक गर्जनाएं
भीग जाये धड़कने ..हो हर सांस नम
जीवित हैं..मरे नहीं…हो ये आभास सा…

4 thoughts on “सुन सको गर …

  1. शुष्क आँखों से अब सागर नहीं रेत झरता है . सब कुछ साफ साफ सुनाई दे रहा है और ह्रदय विकंपित भी है , जो जीवित होने का प्रमाण तो है लेकिन कब तक? अतुलनीय दी .

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  2. सुन सकें गर हर पलों की ..मूक गर्जनाएं

    भीग जाये धड़कने ..हो हर सांस नम

    जीवित हैं..मरे नहीं…हो ये आभास सा…

    हर बार की तरह आपके शब्दों के प्रयोग से प्रभावित हुई दी…
    ये भाव पूरित शब्द और इनकी संवेदनाए तो जाने क्या क्या बयान कर रही हैं दी…फिर से एक बार तरंगित कर दिया आपने … जाने क्यूँ ये बेमोल अनमोल रिश्ते अक्सर अनाम भी रहते हैं…
    सर्वथा शून्य… मगर… भाव पूर्ण … `अदाह… अथाह… से कदाचित…
    “जैसे… “मानो तो मैं गंगा माँ हूँ न मानो तो बहता पानी…”

    एक आसमानी अपना पन
    ऊँचा महान
    स्पर्श की अनुभूति से परे…
    स्वप्न सामान…
    जिसे क्षणांश देखना भी चाहें
    तो आँखें ही चुंधिया जाएँ
    ऐसे बेमोल अपनेपन का अहसास भी परे है…
    तमाम मर्यदाओं और रीति नीति से
    भव्य और पूजनीय…
    जो और -और सुसंस्कृत कर देता है
    मन -जीवन…..
    ….वंदना…

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    • ye jo bhaav hai…..aur usse judi anubhuti……bus yahi to hai…jo sarvatha samrth hai…buddhi vivek ..ki paridhi mein .bandhana inhe manya nahin..tark vitark se koso door….isliye to ye…anmol hain …….
      mujhe samjhne ke liye……khooooooooob sara pyaar vandana…god bless..

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